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सुर कोकिला : लता मंगेशकर-मोती सी पाक और क्रिस्टल सी पारदर्शी आवाज़ की मल्लिका 

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ऐसी सुरीली आवाज़ जो हमारे सिनेमा की ही नहीं, हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की आवाज़ रही। एक ऐसी आवाज़ जिसमें मंदिर की घंटियों और मस्जिद की अज़ान सी पाकीज़गी। ऐसी आवाज़ जो सदियों में कभी एक बार ही गूंजती है। सन्नाटे को चीरती हुई कोई रूहानी दस्तक। जो है से थी में बदल गई। महानतम गायिका भारतरत्न लता मंगेशकर ने हमेशा हमेशा के लिए आंख बंद कर ली। जिनका होना था जीवन की तमाम आपाधापी और शोर के बीच सुकून और तसल्ली के कुछ अनमोल पल। लता मतलब भावनाओं की एक बयार ऐसी जो सुनने वालों को अपने साथ बहा ले जाय। लता मंगेशकर ने  प्रेम को सुर दिए, व्यथा को कंधा और आंसुओं को तकिया अता की। मानवीय भावनाओं और सुरों पर उनकी पकड़ ऐसी कि यह पता करना मुश्किल हो जाय कि उनके सुर भावनाओं में ढले हैं या ख़ुद भावनाओं  ने ही सुर की शक्ल अख्तियार कर ली हैं।

 

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मराठी फ़नकार और संगीतकार दीनानाथ मंगेशकर के घर 28 सितंबर 1929 को जन्मीं लता जी के स्वर को नूरज़हां और शमशाद बेग़म के दौर में कई संगीतकारों ने यह कहकर खारिज़ कर दिया था कि उनकी आवाज़ बेहद पतली है। यह 1947 की बात है। हिंदी फिल्म 'आपकी सेवा में' के एक साधारण से गीत को लता ने गाया था।

 

2013 में  अपने एक इंटरव्यू में लता जी ने कहा था : "गुलाम हैदर पहले संगीत निर्देशक थे, जिन्होंने मेरी प्रतिभा पर पूरा विश्वास दिखाया। उन्होंने  एस.मुकर्जी सहित कई निर्माताओं से मिलवाया, जो फिल्म निर्माण में एक बड़ा नाम थे।

 

जब सबने मुझे लेने से मना कर दिया तो ग़ुलाम हैदर  ग़ुस्से से तिलमिला उठे, उनका स्वभिमान और जलाल जाग उठा। आखिर फ़िल्म मजबूर (1948 फिल्म) के माध्यम से हैदर साहब ने मुझे फ़िल्म इंडस्ट्री में स्थापित करके ही दम लिया। ग़ुलाम हैदर वास्तव में मेरे गॉडफादर हैं।"

दूसरी ओर मधुबाला अकेली नायिका थी जिहोंने फिल्में स्वीकार करने के पहले यह शर्त रखी थी कि उन्हें अपने लिए लता जी की आवाज़ से कम कुछ भी मंजूर नहीं है। अंततः लता जी को काम भी मिला और स्वीकृति भी। उन्हें अपार शोहरत मिली 1949 की फिल्म 'महल' के कालजयी गीत 'आएगा आने वाला' से। उसके बाद जो हुआ वह इतिहास है। उन्होंने सिनेमा के संगीत को वह शिखर दिया है कि हिंदी सिनेमा ही नहीं, भारतीय सिनेमा का इतिहास भी उनके बगैर अधूरा और उदास लगेगा।  

अपनी शालीन, नाज़ुक, गहरी और रूहानी आवाज़ से लता जी ने लगभग सात दशकों तक हमारी खुशियों, शरारतों, उदासियों, दुख, अकेलेपन और हताशा को अभिव्यक्ति दी। देश की तीस से ज्यादा भाषाओं में तीस हज़ार से ज्यादा गाने गाने वाली लता जी के लिए संगीत इबादत से कम नहीं था। संगीत के प्रति उनकी आस्था ऐसी गहरी थी कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में घुसने के पहले वे अपनी चप्पलें बाहर ही उतार देती थी।

मानवीय भावनाओं और सुरों पर पकड़ ऐसी कि किसी के लिए यह पता करना मुश्किल हो जाय कि उनके सुर भावनाओं में ढले हैं या ख़ुद भावनाओं ने सुरों की शक्ल अख्तियार कर ली हैं। उनके बारे में कभी देश के महानतम शास्त्रीय गायक मरहूम उस्ताद बडे गुलाम अली खा ने स्नेहवश कहा था - 'कमबख्त कभी बेसुरी नही होती।'

उस्ताद आमिर ख़ान कहते थे कि 'हम शास्त्रीय संगीतकारों को जिसे पूरा करने में डेढ़ से तीन घंटे लगते हैं, लता वह तीन मिनट मे पूरा कर देती हैं।'

 

पंडित हरि प्रसाद चौरसिया के शब्दों में - 'कभी-कभार ग़लती से ही लता जी जैसा संपूर्ण कलाकार पैदा हो जाता है।' यह पहली बार हुआ कि स्टेज पर उन्हें 'ऐ मेरे वतन के लोगों ज़रा आंख में भर लो पानी' गाते सुनकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरु के आंसू निकल आए थे।

लता जी एकमात्र ऐसी जीवित महिला गायिका हैं, जिनके नाम से संगीत के सबसे सम्मानित पुरस्कारों में एक 'लता मंगेशकर सम्मान' दिया जाता है। 

 


कुछ सालों पहले लता जी ने बढ़ती उम्र के सबब गायन से संन्यास ले लिया। अपनी पीढ़ी के गायक-गायिकाओं में शायद वे अकेली रहीं। उनकी ही नहीं, उनके बाद आने वाली देश की कई पीढ़ियों को भी गर्व होगा कि वह लता जी के युग में पैदा, जवान और बूढ़ी हुई। दिलीप कुमार के इन शब्दों में हम उन्हें श्रद्धांजलि देते हैं,  'जिस तरह फूल की ख़ुशबू का कोई रंग नहीं होता, जिस तरह पानी के झरनों और ठंढी हवाओं का कोई घर, कोई देश नहीं होता, जिस तरह उभरते सूरज की किरणों या किसी मासूम बच्चे की मुस्कराहट का कोई मज़हब नहीं होता, वैसे ही लता जी की आवाज़ क़ुदरत की तखलीक का एक करिश्मा है।'

कॉपी/ इन पुट- ध्रुव गुप्त और मनोहर महाजन